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एक सैनिक की मौत

(दांतेवाडा की घटना के बाद तो जैसे होड़ सी मच गई है घटना की निंदा ... स्पष्ट कर दूँ मुझे भी कोई प्रसन्नता नहीं है इस पर, पर यह भी स्पष्ट है कि मै असली कसूरवार किसी और को मानता हूँ. इस घटना के बाद मेरे पास बहुत से मेल आये. इनमे से अधिकांश वो लोग है जिन्होंने कभी 'दरअसल यूं' पर मेरा लेख ' बुलेट बैरक और भारत पढ़ा था. देशभक्ति के जज़्बे और गुस्से से भरे ये लोग जानना चाहते हैं कि अब इस घटना पर मै क्या कहूँगा .... कुछ भी कहने से पहले मुझे अशोक पाण्डेय की कविता 'एक सैनिक की मौत' याद आ रही है. मुझे लगता है इस कविता के बाद कम से कम सैनिकों की देशभक्ति वाली व्यथा के बारे में कुछ और कहने के लिए कम ही बचेगा....पेश है अशोक पाण्डेय की कविता एक सैनिक की मौत
- पवन मेराज )


एक सैनिक की मौत
-अशोक पाण्डेय

तीन रंगो के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया है मेरा दोस्त

अख़बारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रूपहले पर्दों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन
सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी

कभी-कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है

और किस्सा भी क्या?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपनो का
इर्द गिर्द एक अदद नौकरी के

अब इसे संयाग कहिये या दुर्योग
या फिर केवल योग
कि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी ज़िंदगी कि
इसीलिये
भरती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में
शहादत !

बचपन में कुत्तों के डर से
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था

बारह दुश्मनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?



वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अख़बारों के पहले पन्ने पर
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज़ चैनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा

एक दूसरे चैनल पर
दोनों देशों के मशहूर शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक सी ग़ज़लें

तीसरे पर छूट रहे थे
हंसी के बेतहाशा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर

और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित ख़बरों की भीड़ मे
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम लाशें
.
.
.
अजीब खेल है
कि वज़ीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
शांति भी लहू पीती है!

1 टिप्पणियाँ:

कड़वी बातें, पर सच...ठीक ऐसी ही बात मैंने अपनी एक टिप्पणी में कही थी...उसका एक अंश यहाँ दे रही हूँ-
“जाने क्या हो रहा है अपने देश में?…एक गरीब को दूसरे गरीब के विरुद्ध लड़ा रहे हैं हमारे नीति-निर्माता…गरीब लड़ रहा है…मर रहा है…रोटी के लिये…समानता के लिये…जो लोग उन्हें लड़वाते हैं, वो किताबों में इस समस्या का हल ढूँढ़ रहे हैं…बीच-बीच में कह देते हैं—नहीं इन्हें ऐसे मरना चाहिये…वैसे मरना चाहिये…नहीं…यहाँ नहीं, वहाँ मरना चाहिये…गोली से नहीं बम से मरना चाहिये…पर मरना तो ज़रूर चाहिये…चाहे सी.आर.पी.एफ़. के गरीब मरे चाहे नक्सलपंथी गरीब…”

12 अप्रैल 2010 को 12:35 am बजे  

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