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बुलेट बैरक और भारत


मैं एक भारतीय हूं....और हर भारतीय की तरह मुझे कुछ मूल्य घुट्टी में मिले हैं। मसलन परम्परा, देश और देश की सेना पर गर्व करना। हालांकि ये समझना मुश्किल है कि हमारी परम्परा क्या है? और देश का मतलब टाटा, अम्बानी और मित्तल है? या फिर जनता? (जनता जिसमें किसान भी हैं और दूर दराज के आदिवासी भी) इसमें क्या वाकई बेरोजगार भी शामिल होते हैं? पर छोड़िए ना! मैं देश पर गर्व करता हूं और मानता हूं कि सीमाओं की रक्षा करने वाले हमारे जवान कठिन परिस्थितियों में मौत का सामना करते हैं..... अब जबकी उन पर गर्व करना कर्तव्य ही नहीं धर्म भी है तो हर भारतीय की तरह मैं भी उनपे गर्व करना चाहता हूं। पर क्यों मनोरमा की लाश आँखों के सामने आ जाती है..... क्यों वस्त्रहीन दौड़ती हुई महिलाओं की दर्द भरे गुस्से की चीख दिल को चीर देती है ‘‘आओ! गाड़ दो अपना तिरंगा हमारी छाती पर।‘’
मनोरमा याद है ना आपको! जुलाई 2004 में उनकी लाश झाड़ियों में पड़ी मिली। सात दिनों पहले सेना के जवानों ने उन्हें आतंकियों के सहयोगी होने के संदेह में, बिना किसी लिखा-पढ़ी या वारन्ट के घर से अगवा कर लिया था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार उनके शरीर पर भयंकर शारीरिक यातनाओं और सामूहिक बलात्कार के चिन्ह ..... वैसे जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में मनोरमाओं की संख्या गिनता ही कौन है। यहां सेना द्वारा किसी को अगवा करने के लिए शक का बहाना भी नहीं चाहिए। इसी साल सोपियां (जम्मू-कश्मीर ) में दो लड़कियां (आसिया जान और उनकी रिश्तेदार निलोफर जान) सेना कैम्प के पास से गायब हुईं, एक लड़की की उम्र महज 17 साल थी। लोग जब सड़कों पर उतर आए और जांच का घेरा तंग होने लगा तो उनकी लाश अचानक एक नाले में प्रगट हो गई। हैरानी की बात थी इस जगह की छानबीन पहले भी की जा चुकी थी। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार दोनो के साथ अमानवीय तरीके से बलात्कार किया गया था। जांच की हर दिशा सेना कैम्प के ओर इशारा करती रही। सूत्र बताते हैं कि जिस दिन दोनों गायब हुई थीं सेना कैम्प में किसी पार्टी का आयोजन था। कहने की जरूरत नहीं दोनों वाकयों के गुनहगार आज भी खुलेआम घूम रहें हैं। यह तथ्य दिल दहला देता है कि ये घटनाएं अपवाद नहीं.....छेड़छाड़ और बलात्कार सेना की आदत में शामिल होता जा रहा है। अधिकतर मामले प्रकाश में ही नहीं आ पाते क्योंकि अधिकांश पीड़ित जिस वर्ग के होते हैं, उनके लिए सेना जैसे संगठित गिरोह के सामने खड़े होने का साहस जुटा पाना ही असम्भव है। उपरोक्त वाकए भी तब प्रकाश में आ सके जब स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ जबर्दस्त विरोध किया। मणिपुर में ऐसे अनेक वाकयों को झेलती आ रहीं महिलाओं का धैर्य मनोरमा प्रकरण में चुक गया। उन्होंने मणिपुर सेना मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र हो कर प्रदर्शन किया और नारे लगाए ‘‘हम सब मनोरमा की माएं है ....हमारा बलात्कार करो।’’ शायद यह पहला वाकया था जब प्रचलित मीडिया ने मणिपुर की हालत का जायजा लेने की कोशिश की। खैर दोषियों को तो सजा नहीं मिली लेकिन प्रदर्शनकारी महिलाओं को अश्लील व्यवहार करने के जुर्म में तीन माह की सजा हुई। क्या हमने वाकई कभी उस दर्द तक पहुंचने की कोशिश की है जो उन्हें कहने पर मजबूर करता है ‘‘वी आर इन्डियन बाईकर्स‘‘।

3 जून 2008 को श्रीनगर में शेख नाम का एक दिहाड़ी मजदूर अचानक हमेशा-हमेशा के लिए गायब हो गया। इसके कुछ दिनों बाद ही सेना के एक जवान की बेटी के अपहरणकर्ता का पीछा करते-करते बड़गम पुलिस ने चीची नामक एक व्यक्ति को वहां की एस.डी. कालोनी से गिरफ्तार किया। चीची के पास जो दस्तावेज प्राप्त हुए, वो उसे बन्दीपुर में सेना का सूत्र बताते थे। थोड़ी ही छान-बीन के बाद बड़गम पुलिस सकेते में आ गई क्योंकि सूत्रों के अनुसार चीची को कुछ दिनों पहले मार गिराए गए एक आतंकवादी के साथ भी देखा गया था। चीची ने टूटने के बाद जो कहानी बताई वो एक दुःस्वप्न है....मार गिराया गया आतंकवादी ‘शेख’, वास्तव में श्रीनगर का दिहाड़ी मजदूर था जिसे चीची 200 रू प्रतिदिन की दिहाड़ी पर बन्दीपुर लाया था। बाद की कहानी साफ थी...एक एन्काउण्टर और लाश के पास बन्दूख वगैरह-वगैरह। यह सब इसलिए क्योंकि एक मेजर ने चीची को आतंकवादी मुहैया करवाने के बदले एक लाख रू देने का वादा किया था। इस पर रक्षा प्रवक्ता एन.सी.विज का बयान था ‘‘वी विल इन्वेस्टिगेट व्हाट लेड टू दीज ऐलीगेशन अगेन्स्ट आर्मी यूनिट’’

स्थान-मेण्डेवाल, साल-2006, एक ऐसा ही एन्काउण्टर हुआ... बाद में झूठा पाया गया। पांच सैनिक गिरफ्तार किए गए जिसमें कमाण्डिग आफिसर भी शामिल था। मारे गए शौकत एहमद, जदिवाल जिले की मस्जिद के मौलवी थे। यह मामला भी तब प्रकाश में आया जब एक अन्य झूठे एन्काउण्टर की जांच चल रही थी जिसमें अब्दुल रहमान नामक एक बेगुनाह व्यक्ति को विदेशी आतंकवादी बता कर मार गिराया गया था।सितम्बर 11, कुपवारा जिले में तो खुद सेना में भर्ती होने गए चार लोगों को मेडल की लालच में आतंकवादी बता कर मार डाला गया। 22 सितम्बर 2003 को कोराझार जिले के चार बोडो युवको की सेना द्वारा हत्या....... ये फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि शायद कभी खत्म ही न हो। अभी पिछले महीने - अक्टूबर की 28 तारीख को जम्मू-कश्मीर की निवासी मुगनली अपने बेटे की राह तकते-तकते मर गईं। वो जम्मू कश्मीर के उन 10,000 लोगों के परिजनों में से एक थीं जो 1990 के बाद से गायब होते रहे। यही वह समय है जब जम्मू कश्मीर में सेना ने अपनी कवायदें तेज कीं थीं।आखिर सेना के जवान ऐसा कैसे कर पाते हैं? वजह साफ है, इन जगहों पर उन्हें विशेषाधिकार दिए गए हैं। मणिपुर की बात करें तो वहां ‘सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम 1958’ लागू है। इसके अनुसार सेना के अधिकारी शक मात्र होने पर न सिर्फ किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं बल्कि गोली भी मार सकते हैं। मारे जाने वाले निर्दोष लोगों की संख्या भयावह है लेकिन उससे भी भयावह -हमारे देश में कुछ ऐसी जगहें भी हैं जहां के लोगों की जिन्दगी किसी सैनिक के संदेह की मोहताज है। यही नहीं पीड़ित व्यक्ति न्याय के लिए अदालत का दरवाजा भी तब तक नहीं खटखटा सकता जब तक सेना इसकी इजाजत न दे दे।सन 2000 में पैरामिलिट्री असम राईफल ने मालोम बस स्टैण्ड पर 10 निर्दोष नागरिकों को मार गिराया। इरोम शर्मिला (जो बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता ऐसे मामलों को पिछले कई सालों से देखती आ रहीं थीं ) 2 नवम्बर 2000 को आमरण अनशन पर बैठीं। मांग स्पष्ट थी। सैन्यबलों की तैनाती को मणिपुर से हटाया जाए और सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम 1958 निरस्त किया जाए। उनका यह संघर्ष आज एक मिसाल बन चुका है और वे मानवाधिकारों की सुरक्षा चाहने वालों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। अपने इतिहास की किताबों में हम बेशक ‘रोलट एक्ट’ का विरोध करने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों पर गर्व करते आ रहे हों पर अपने आमरण अनशन के 9 साल पूरे कर चुकीं इरोम शर्मिला आज भी हिरासत में हैं। उन पर आत्महत्या के प्रयास का दोष लगाया गया है। क्योंकि ऐसे मामले में किसी व्यक्ति को 2 साल से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता तो हर 2 साल बाद उन्हें रिहा कर फिर से हिरासत में ले लिया जाता है, जहां उन्हें नाक के सहारे भोजन दे कर जिन्दा रखा है.

लेकिन भूल जाइए सब। बस याद रखिए देश और देश की सेना पर गर्व करना सुकून देता है खास तौर पर तब, जब पल्ले कुछ भी न हो और हमारी सरकार हमसे वो भी छीन लेना चाहती हो। कितना अच्छा होता है खाली जेबों और विपन्न लोगों द्वारा, पड़ोसी देशों के आक्रमण का खतरा बुन लेना और उसका सामना करती हमारी फौजों पर गर्व करना। जबकी हमारी फौजों का संचालन करने वाली सरकारें और भरी जेबें, जनता के अधिकारों पर अपना शिकंजा रोज-ब-रोज तंग करती जा रही हों। आइए वास्तविक खतरों को भुला दें और दूसरे डर पाल लें। मसलन - पाकिस्तान, चीन ही नहीं श्रीलंका से लेकर नेपाल यहां तक बंगलादेश जैसे देश हमपे आक्रमण करके हमें अपना गुलाम बना लेंगे। इस तरह हमें अपने अधिकारों को खोने की प्रक्रिया में कम कष्ट का सामना करना पड़ेगा।

ट्रेन में सफर करते हुए अगर कुछ सैनिक मिल जाएं तो सम्मान से अपनी रिजर्व सीट छोड़ दें, अन्यथा आपको जबर्दस्ती उठा दिया जाएगा, गुस्सा आने पर चलती ट्रेन से धक्का भी दिया जा सकता है। आज-कल सेना के जवानों द्वारा सिविलियनस की पिटाई, हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं अक्सर सुनने में मिलती हैं। पता नहीं उन्होंने यह सब करना अपना अधिकार समझ लिया है या यह कुण्ठा है जो कहती है ‘‘इन्हीं लोगों की सुरक्षा के नाम पर हमें अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ता है।‘‘

सच है- वे बहुत काम करते हैं, वे इतने व्यस्त हैं कि सी.आर.पी.एफ. अब रिजर्व नहीं रहा। इसके 87 फीसदी जवान किसी न किसी मुहिम से जुड़े हैं। जम्मू-कष्मीर - ३९%, पूर्वोत्तर राज्य- २९%, और 19 फीसदी जवान देश के अन्दरूनी इलाकों में नक्सलियों से लड़ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में कठिन और लम्बे सघर्ष तथा पाकिस्तान की नकारात्मक भूमिका के बावजूद क्या भारत कश्मीर की समस्याओं में अपना हाथ होने से खुद को पूरी तरह निर्दोष करार दे सकता है? पूर्वोत्तर राज्यों की हम बात भी कैसे कर सकते हैं जहां की जनता इन जवानों की तैनाती से इतनी व्यथित हो चुकी है कि इसके विरोध में आए दिन प्रर्दशन होते रहते हैं। अन्दरूनी इलाकों में नक्सलियों से लड़ने के नाम पर, आदिवासियों और किसानों को गोलियों से भूना जा रहा है। इससे बढ़ कर ‘सलवा जूडूम‘ जैसी गालियां विकसित की जा रही हैं। दिल्ली में ‘सिटीजन फॉर पीस एण्ड जस्टिस इन छत्तीसगढ़’ की बैठक में एक आदिवासी का यह बयान अगर आपका दिल नहीं दहला सकता तो कुछ भी ऐसा नहीं जो आपको विचलित कर सके - ‘‘एक दिन अप्रैल महीने में मैं महुआ बीनने गया हुआ था कि अचानक सलवा जुडूम के लोग वहां आ पहुंचे । मैं पेड़ के पीछे छुप गया पर उन्होंने महुआ बीनती चार महिलाओं को पकड़ लिया। उन्होंने मेरे सामने सन्नू ओयामी की 16 साल की बेटी कुमारी और बन्डे की 27 साल की पत्नी कमली का बलात्कार किया। 2 बुजुर्ग महिलाओं को उन्होंने छोड़ दिया और जवान लड़कियों को नक्सलियों के रूप में ढ़ाल अपने साथ ले गए। ये दोनों लड़कियां आज भी जगदलपुर की जेल में नक्सली होने के आरोप में बन्द हैं। वकील को अब तक हम लोग 12 हजार दे चुके हैं पर वह कहता है कि 20 हजार देंगे तभी वह लड़कियों को छुड़वा सकेगा।’’

13 मार्च 2007 को नागा बटालियन और सलवा जुडुम के लोगों ने गगनपल्ली पंचायत के नेन्दरा गांव में कुछ नक्सलियों को मार गिराया था। उनके नाम उनकी उम्र के साथ इस प्रकार है - सोयम राजू (2साल), माडवी गंगा(5साल), मिडियम नगैया(5साल), पोडियम अडमा(7साल), वेट्टी राजू(9साल)वंजम रामा (11 साल), सोयम राजू(12 साल), सोडी अडमा(12साल), मडकम आइत (13साल) मडकम बुदरैया (14साल), सोयम रामा(16 साल) सोयम नरवां (20 साल) ।

आखिर इन निहत्थे किसानों और आदिवासियों से हमें क्या खतरा है? क्या यही नहीं कि देश की ज्यादातर खनिज सम्पदा इन्हीं इलाकों में है और अब पूंजीपतियों के विस्तार के लिए इन इलाकों पर कब्जा जरूरी है। गृह मन्त्री परेशान हैं क्योंकि पहले वो वित्त मन्त्री भी थे.... विकास ! विकास! विकास! किसानों, आदिवासियों और सेना के अत्याचार झेल रहे दूसरे राज्यों के लोगों तुम मूर्ख हो.....हम विकास की बात कर रहे हैं जो तुम समझ ही नहीं सकते और जरूरत भी क्या है कि तुम समझो, हम कौन सा तुम्हें उस विकास में हिस्सेदारी देने वाले हैं। लेकिन इसके बावजूद इतना तो तुमको समझना ही चाहिए कि देश एक है और कानून जरूरी, तुम्हें इसमें यकीन करना चाहिए। पिछले 65 सालों में हमने एक वर्ग की तिजोरियों को इतना भर दिया कि दुनिया के सौ अमीरों में उनके नाम हैं, और तुम मूर्ख! कपटी! देशद्रोही! देश की तरक्की में तुम्हारा यकीन ही नहीं। हां सच है इन 65 सालों में हम तुम्हारा भरोसा अब तक नहीं जीत पाये और इसकी तुम्हें सजा मिलेगी।

आख़िर सेना को कौन बताता है कि ये लोग दुश्मन हैं। यही क्यों लगे हाथ पाकिस्तान और दूसरे देशों पर भी विचार कर लिया जाए। या फिर पाकिस्तान की सेना को कैसे पता चलता है कि उन्हें भारतीय सैनिकों पर हमला बोलना हैं। जाहिर सी बात है यह तय करती हैं मुखौटा बदलती और नए सांचे में ढ़लती वे सरकारें, जो शोषण पर टिकी व्यवस्था को कायम रखती हैं। आत्महत्या करने या गोली खाने पर मजबूर किसान को देश शब्द से क्या फर्क पड़ता है, फिर वह चाहे आदिवासी क्षेत्र का हो, विदर्भ का या फिर पाकिस्तान के किसी पिछड़े इलाके का ।

असल में हमारे जवान रोबोट भर हैं जिनकी उंगलियां ट्रिगर पर हैं और उनके पीछे उनके संचालक (इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अंग्रेज नहीं।) दुश्मनों को चिन्हित करने में व्यस्त हैं। मन दहल जाता है कि अन्दरूनी समस्याओं से निपटने के नाम पर शस्त्रों से लैस हमारी सेना के कसरती जवान, दिन रात अभ्यास करते हैं - निहत्थे किसान, मजदूर और आदिवासियों को कुचलने के लिए। ऐसा नहीं वे चैन से बैठे हैं इस हेतु वे दिन-रात मेहनत करते हैं। बिना छुट्टी लिए अपने परिवार से दूर अकल्पनीय अमानवीय हालतों (हालांकी देष की बड़ी आबादी भी उसी हालत में रहती है। ) का सामना करते हुए, वे हत्याएं, बलात्कार और घर जला रहे हैं। क्योंकि उन्हें आदेश मिला है ये shoshit लोग दुश्मन हैं। इस तरह वे वाकई नए दुश्मन पैदा करते हुए लड़ रहे हैं.... मर रहे हैं।पिछले 37 सालों में हमने बेषक कोई यु़द्ध न लड़ा हो पर हमारी सीमाओं के अन्दर यह रोज जारी है। इन परिस्थितियों में लड़ते हुए हमारे जवान वहां की जनता से देश भक्तों सा गौरव भी नहीं प्राप्त कर पाते जो वेतन के अतिरिक्त एक आवष्यक उर्जा स्रोत है। अतः सेना के जवान तनावग्रस्त हो कर आत्महत्या की राह पर चल पड़े हैं। दो साल पहले सेना के जरनल जे.जे. सिंह ने खुद स्वीकार किया था कि पिछले चार पांच सालों से हर साल कम से कम 100 जवान आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं। इसका अर्थ यह है हर हफ्ते कम से कम दो जवान आत्महत्या करते हैं। इसमें सबसे बड़ी संख्या सी.आर.पी.एफ. की है जिसे अन्दरूनी हिस्सों में लगाया जाता है। 2004-06 में 283 जवान मिलिटेन्ट हमलों में मारे गए। जबकी इसी दौरान खुद अपनी या अपने साथियों की जान लेने वाले सैनिकों की संख्या 408 थी जिसमें से 333 जवान आत्महत्या के शिकार हुए थे ।

लेकिन इस सब से क्या फर्क पड़ता है व्यवस्था में सब कलपुर्जे हैं, फिर वह किसान हो या जवान। इन सबका संचालन वास्तव में वे लोग करते हैं जिन्हें अपनी पूंजी बढ़ानी है। तकनालाजी और दूसरे हितों के लिए बाहरी कम्पनियों से हाथ मिलाना है। बेचना है - खरीदना है। किसानों, आदिवासियों से उनकी जमीन छीननी है। इसके लिए उनके पास मुखौटा बदलती सरकार है, जो हमें समझा सके - ‘राष्ट्रीय हित‘ में यह सब होना कितना जरूरी है। विरोध को कुचलने के लिए सेना है ओर उसमें भरती होने के लिए बेरोजगारों की फौज, जो भरती हो कर यदि दुश्मन (जिसे चिन्हित किया गया है। ) का सामना करते हुए मरे तो शहीद, किन्तु भर्ती के दौरान यदि भगदड़ या सेप्टिक टैंक टूटने से उसमें डूब कर मरें तो कुत्ते की मौत मरेंगे यकीन मानिए आकाओं को देश शब्द से कोई फर्क नहीं पड़ता।
अन्तिम सत्य यह है कि सम्मानजनक जीवन की मांग शान्तिपूर्ण ढ़ंग से करना आत्महत्या है और हताशा में हथियार उठा लेना देशद्रोह, सबसे सच्चा वह ‘मैं’ है जो ‘धारक’ को एक के नोट पर एक रू. अदा करने का वचन देता है यह बात और है उसकी कीमत कभी भी एक रू. नहीं थी।

20 टिप्पणियाँ:

jai ho !
bahut khoob....

7 नवंबर 2009 को 6:19 am बजे  

हुज़ूर आपका भी एहतिराम करता चलूं......
इधर से गुज़रा था, सोचा सलाम करता चलूं

http://www.samwaadghar.blogspot.com/

7 नवंबर 2009 को 8:49 am बजे  

7 नवंबर 2009 को 9:13 am बजे  

गुस्सा तो हमको भी बहुत आता है लेकिन्…………।

7 नवंबर 2009 को 11:36 am बजे  

Badhiya lekh hai yaar

7 नवंबर 2009 को 7:23 pm बजे  

पवन जी,
आपने लेख में देश के भीतरी हालात, सेना, सरकार, राजनीति, नक्सलवाद, आतंकवाद, सभी पर बहुत सूक्ष्मता से तथ्यपूर्ण विश्लेषण किया है| आपने भारतीय सेना केलिए जो भी सवाल उठाये हैं कुछ हद तक इसके जवाब भी इसी लेख में है...
‘‘इन्हीं लोगों की सुरक्षा के नाम पर हमें अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ता है।‘‘
भारतीय सेना का वीभत्स रूप हो या असंतोष, कहीं न कहीं हमारी सरकार, कानून, और हमारा आर्थिक ढांचा दोषी है| सेना को अधिकार देना और अधिकार का हनन करना दो अलग परिस्थिति है|
आम जनता तो हमेशा हीं इस्तेमाल की जाती है, चाहे कभी हथियार उठाने केलिए हो, या सत्ता चलाने केलिए हो, निरपराध दण्डित होना हो, या किसी भी देश द्रोही गतिविधियों में हिस्सेदारी हो| एक सच ये भी है कि नक्सलवाद और आतंकवाद के नाम पर अपराधी अपने अपराध को अंजाम दे देते हैं| ये भी इसी देश की जनता है जो शोषक भी है और शोषित भी| सारे सवाल और जवाब हमारे हीं पास है, बस एक हीं विषम और विकट परिस्थिति है कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं| शुभकामनायें|

7 नवंबर 2009 को 11:57 pm बजे  

सही कहा दोस्त
भारतीय सेना का चरित्र आज भी औपनिवेशिक है और वह कश्मीर, उत्तरपूर्व तथा देश के दूसरे हिस्से के नागरिकों से गुलाम देश के नागरिकों की ही तरह व्यवहार करती है।
जिस पर शर्म आती है उस पर गर्व कैसे करे कोई?

हां और लिखा भी पूरी रवानगी से है…नियमित लिखो और प्रिंट मे भेजो भी।

8 नवंबर 2009 को 8:30 pm बजे  

Amaanveeya paristhitiyo ka sahaj chitran man ko jhakjhor gaya.Nice post.

8 नवंबर 2009 को 9:30 pm बजे  

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और शुभकामनायें
कृपया दूसरे ब्लॉगों को भी पढें और उनका उत्साहवर्धन
करें

8 नवंबर 2009 को 10:28 pm बजे  

Bhut badiya likha hai. Kash ye sari bateen sarkar tak phuch pati.

9 नवंबर 2009 को 3:20 am बजे  

इसे सहने के लिए अभिशप्‍त हैं और मुक्ति का कोई मार्ग नहीं।

9 नवंबर 2009 को 8:30 am बजे  

Pawan bahut acha lekh hai....kya stree Mukti ke liye doge.....keep writing

9 नवंबर 2009 को 9:58 am बजे  

dahala dene wali sachchaio ko samane rakhkar aap ne ek chunouti ka gahara ahasas karaya hai.is halat ko badalo.

9 नवंबर 2009 को 10:25 pm बजे  

इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

13 नवंबर 2009 को 10:59 pm बजे  

इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

13 नवंबर 2009 को 11:00 pm बजे  

Haan Bhai sach kaha!

13 नवंबर 2009 को 11:04 pm बजे  

badhiya lekh Pawan,
jaroori sawalon ko, nihayat jaroori sawalon ko samne lata hua.
Hamare hi beech ke bhai jo sena me jate hain aur hamare hi bhai jo apni sena par naj karate hain aur man hi man aankh moond kar vishwas karte hai, shayad ye lekh padh kar sadbuddhi aye unhe.
Par ham Hidustani hain, achche lekh padh kar wah wah karna aur unhe safai se bhool jana khub achchi tarah jante hain.
kaaaash..................
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15 नवंबर 2009 को 6:38 am बजे  

अच्छा आलेख है। "सेना" शब्द थोड़ा विस्तार माँगता है...अब देखिये ना यदि आप सेना लिखेंगे यानि कि आर्मी....फर्क है। सोपिया केस को भी आपने सेना के मत्थे लाद दिया और दो-तीन उद्धरण भी। जरा केस की छानबीन कीजियेगा ठीक से..इसमे सारे उद्धरण CPO {central police org} से संबद्धित हैं, लेकिन आपने सबको सेना से जोड़ दिया।
मैं इस बात से इंकार नहीं करता कि सेना के जवानों द्वारा ज्यादतियां नहीं हुई हैं, लेकिन अपवाद कहां नहीं होता...

खैर कुछ बहुत ही अच्छे प्रश्न उठाये हैं आपने। लिखते रहें।

3 दिसंबर 2009 को 9:03 pm बजे  

aap ne bhut hi achha likha hai

8 जनवरी 2010 को 3:23 am बजे  

आलस त्यागो वत्स…नया लिखो…यहां भी और जनपक्ष में भी

14 मार्च 2010 को 8:28 am बजे  

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