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बापू से संवाद -2

(गुजरात दंगों के बाद कुछ टूट गया था दिल में, जिसकी फांस शायद ही कभी निकल पाए, ये कविता है तो उसी परिप्रेक्ष्य में लेकिन बापू के जन्मदिन के साथ अयोध्या के अन्याय ने सारे जख़्म जैसे फ़िर से हरे कर दिये…… और इन सब के बीच आज की शान्ति…………)




बापू से संवाद -2


बापू
हमें फिर से बताओ
शान्ति क्या होती है?
वो जो दिखती है चेहरे पर
या वो
जो कत्ल के बाद
लाश पे रोती है

ये शान्ति है/
या बन्दरों के आखों की चमक
जिनके हाथों में सत्ता का अस्तूरा है
उन्हें नहीं सुनाई देतीं
कराहती आहें
;वो ‘बुरा नहीं सुनते’
पर ‘बुरा’ भी नहीं सुनतेद्ध
ये कैसी शान्ति
के सब शान्त
कातिल भी मकतूल भी
बुरा है
कत्ल करते देख लेना
विरोध का स्वर उससे भी बुरा
तो बापू!
हमें फिर से बताओ
शान्ति क्या होती है
वो जो दिखती है चेहरे पर
या वो जो हर उत्सव के बाद/
राजघाट धोती है

बापू!
शान्ति आज
खद्दर लपटे
रैम्प की कैट वाक पर है
और बाजार में हैं
दोनो के खरीदार
लहू की प्यास से तरबतर

घात लगाता शिकारी
शान्त था हमेंशा
पर मकतूल ने जब भी चाहा चीखना
तुम्हारी किताबें थमा दीं
बन्दरों ने
उनके थप्पड़ की छाप
दिखती है तुम्हारे चेहरे पर
और दहल गए हैं हम भी
इसलिए
बापू!
हमें फिर से बताओ
शान्ति क्या होती है
वो जो दिखती है चेहरे पर
या वो चुप
जो नया कत्ल बोती है।

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